धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढांचे का अभिन्न अंग

धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढांचे का अभिन्न अंग

प्रो बंदिनी कुमारी

धर्म निरपेक्षता हमेशा से बहुल धार्मिक व बहुसांस्कृतिक समाजों की पूर्वावश्यकता रही है। जब कि “धर्म निरपेक्ष-राज्य” आधुनिक अवधारणा है यह आधुनिक राष्ट्र-राज्य की संकल्पना के साथ उद्भूत होती है और बहुल धर्मिक एवं विषम जातीय समाजों की आदर्श जीवन विधि के रूप में मानी जाती है। धर्म निरपेक्षता का संबंध व्यक्ति या समाजों से अधिक “राष्ट्र-राज्य” से है।

व्यक्ति जिस समाज में रहता है उस समाज की संस्कृति के अनुसार उसकी जीवन-विधि निर्धारित होती है और लगभग हर समाज की संस्कृति में धर्म की अहम भूमिका होती है जो उस समाज की नैतिकता की निर्मिति में अपना योगदान देती है। समाज या उसकी निर्मायक इकाई ‘व्यक्ति’ धर्म निरपेक्ष नहीं होते बल्कि आधुनिक ‘राष्ट्र-राज्यों’ से यह अपेक्षा की जाती है कि वो सार्वजनिक जीवन में धर्म निरपेक्ष आचरण का पालन करें।

भारत के संदर्भ में हम देखे तो प्राचीनकाल में यहाँ पर कई धर्म निरपेक्ष शासक हुए, जो विभिन्न धर्मों और सांस्कृतिक समूहों के प्रति सहिष्णुता और समानता का प्रदर्शन करते थे। इनमें प्रमुख है मौर्य साम्राज्य के सम्राट अशोक (273-232 ईसा पूर्व), जिन्होंने कलिंग युद्ध के बाद बौद्ध धर्म अपनाया और हिंसा का त्याग किया। इन्होंने सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण अपनाया और धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दिया।

इसी प्रकार चंद्रगुप्त मौर्य (324-297 ईसा पूर्व) ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया था, जिसमें विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों के लोग रहते थे। उनके शासनकाल में धर्म के आधार पर भेदभाव की कोई नीति नहीं थी, और उन्होंने एक धर्म निरपेक्ष शासन की स्थापना की। गुप्त शासक समुद्र गुप्त (335-375 ईस्वी) ने भी धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई। उन्होंने हिंदू धर्म को मानने के बावजूद अन्य धर्मों के अनुयायियों के प्रति सम्मान रखा और उनके धार्मिक संस्थानों को संरक्षण दिया। हर्षवर्धन (606-647 ईस्वी) ने भी अपने राज्य में धर्म निरपेक्षता का पालन किया।

मध्यकालीन भारत में भी कई ऐसे शासक हुए जिन्होंने धर्मनिरपेक्षता का पालन किया और अपने राज्य में सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार किया। इनमें प्रमुख हैं मुग़ल सम्राट अकबर (1556-1605) जिनको धर्मनिरपेक्षता और धार्मिक सहिष्णुता के लिए सबसे अधिक जाना जाता है। अकबर ने विभिन्न धर्मों के लोगों को अपने दरबार में महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया और “सुलह-ए-कुल” की नीति अपनाई, जिसका मतलब था किस भी धर्मों के प्रति समान व्यवहार।

अकबर के शासन काल में हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया गया, और जजियाकर (गैर-मुस्लिमों पर लगाया जाने वाला कर) को समाप्त कर दिया गया। शेर शाहसूरी (1540-1545) का नाम भी मध्यकाल के उदार शासकों में लिया जाता है जिन्होंने हिंदू और मुस्लिम दोनों प्रजा के साथ समान व्यवहार किया और प्रशासन में दोनों धर्मों के लोगों को स्थान दिया।

दिल्ली सल्तनत के तुगलक वंश के मुहम्मद बिन तुगलक (1325-1351) ने सभी धर्मों के विद्वानों और विचारकों को अपने दरबार में स्थान दिया और उनके साथ चर्चा की। बीजापुर के शासक इब्राहीम आदिल शाह द्वितीय (1580-1627) भी धर्म निरपेक्षता के प्रतीक माने जाते हैं। उन्होंने अपने दरबार में हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों के कलाकारों और विद्वानों को जगह दी और उनकी रचनाओं में दोनों धर्मों की संस्कृतियों का प्रभाव देखा जा सकता है।

विजय नगर साम्राज्य के राजा कृष्ण देवराय (1509-1529) भी एक धर्म निरपेक्ष शासक थे। वे हिंदू थे, लेकिन उन्होंने अपने राज्य में मुस्लिम सैनिकों और अधिकारियों को भी महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया। उनके शासनकाल में सभी धर्मों के लोगों को समान रूप से न्याय और संरक्षण प्राप्त हुआ।

आधुनिक भारत में धर्म निरपेक्षता की अभिव्यक्ति भारतीय संविधान और समाज में गहराई से जुड़ी हुई है। धर्म निरपेक्षता का मतलब यहाँ यह है कि राज्य किसी एक धर्म को समर्थन नहीं देता, बल्कि सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करता है। यह विचार भारत की विविधता और बहुलतावाद को ध्यान में रखते हुए विकसित हुआ है, जहाँ विभिन्न धर्मों के लोग सदियों से साथ रहते आए हैं।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक धार्मिक स्वतंत्रता से संबंधित हैं, जो हर नागरिक को अपने धर्म का पालन करने, उसका प्रचार करने और आचरण करने का अधिकार देते हैं। यह अधिकार न केवल व्यक्तिगत रूप से, बल्कि सामूहिक रूप से भी मान्य है। भारत में हमेशा से धर्म निरपेक्षता का मुद्दा सार्वजानिक वाद-विवाद और परिचर्चाओं में मौजूद रहा है।

एक तरफ जहाँ हर राजनीतिक दल धर्म निरपेक्ष होने की घोषणा करता है वही धर्म निरपेक्षता के संदर्भ में कुछ पेचीदा मामले हमेशा चर्चाओं में बने रहते हैं भारत में धर्मनिरपेक्षता समय-समय पर धार्मिक कट्टरवाद, उग्र राष्ट्रवाद तथा तुष्टीकरण की नीति के कारण शंकाओं एवं विवादों में घिरी रहती है। आधुनिक संदर्भों में धर्म निरपेक्षता एक जटिल तथा गत्यात्मक अवधारणा है। इस अवधारणा का प्रयोग सर्वप्रथम यूरोप में किया गया। यह एक ऐसी विचारधारा है जिसमें धर्म से संबंधित विचारों को इहलोक संबंधित मामलों से जानबूझकर दूर रखा जाता है अर्थात्त टस्थ रखा जाता है।

धर्म निरपेक्षता राज्य द्वारा किसी विशेष धर्म को संरक्षण प्रदान करने से रोकती है। धर्म निरपेक्षता का अर्थ है कि राजनीतिया किसी गैर-धार्मिक मामले से धर्म को दूर रखे तथा सरकार धर्म के आधार पर किसी से भी कोई भेदभाव न करे। धर्म निरपेक्षता का अर्थ किसी के धर्म का विरोध करना नहीं है बल्कि सभी को अपने धार्मिक विश्वासों एवं मान्यताओं को पूरी आज़ादी से मानने की छूट देता है।

धर्म निरपेक्ष राज्य में उस व्यक्ति का भी सम्मान होता है जो किसी भी धर्म को नहीं मानता है धर्म निरपेक्षता के संदर्भ में धर्म, व्यक्ति का नितांत निजी मामला है, जिसमे राज्य तब तक हस्तक्षेप नहीं करता जब तक कि विभिन्न धर्मों की मूलधारणाओं में आपस में टकराव की स्थिति उत्पन्न न हो। भारतीय परिप्रेक्ष्य में संविधान के निर्माण के समय से ही इसमें धर्म निरपेक्षता की अवधारणा निहित थी जो संविधान के भाग-3 में वर्णित मौलिक अधिकारों में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद-25 से 28) से स्पष्ट होती है।

भारतीय संविधान में पुनः धर्म निरपेक्षता को परिभाषित करते हुए 42वें संविधान संशोधन अधिनयम, 1976 द्वारा इसकी प्रस्तावना में ‘पंथ निरपेक्षता’ शब्द को जोड़ा गया। पश्चिमी धर्म निरपेक्षता जहाँ धर्म एवं राज्य के बीच पूर्णतः संबंध विच्छेद पर आधारित है, वहीं भारतीय संदर्भ में यह अंतर-धार्मिक समानता पर आधारित है। पश्चिम में धर्म निरपेक्षता का पूर्णतः नकारात्मक एवं अलगाववादी स्वरूप दृष्टि गोचर होता है, वहीं भारत में यह समग्र रूप से सभी धर्मों का सम्मान करने की संवैधानिक मान्यता पर आधारित है।

धर्म निरपेक्षता संविधान के मूल ढाँचे का अभिन्न अंग है जिसकी पुष्टि एस.आर.बोम्मई बनाम भारत गणराज्य मामलें में वर्ष 1994 में सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा अपने निर्णय में किया गया कि अगर धर्म को राजनीति से अलग नहीं किया गया तो सत्ताधारी दल का धर्म ही देश का धर्म बन जाएगा। अतः राजनीतिक दलों को सर्वाेच्च न्यायालय के इस निर्णय पर अमल करने की आवश्यकता है। किसी भी धर्म निरपेक्ष राज्य में धर्म विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत मामला है।

अतः जन प्रतिनिधियों को चाहिये कि वे इसका प्रयोग वोट बैंक के रूप में करने से बचें। भारतीय राज्य का धर्म निरपेक्ष चरित्र वस्तुतः इसी वजह से बरकरार है कि वह किसी धर्म को राजधर्म के रूप में मान्यता प्रदान नहीं करता है। इस धार्मिक समानता को हासिल करने के लिये राज्य द्वारा अत्यंत परिष्कृत नीति अपनाई है। अपनी इसी नीति के चलते वह स्वयं को पश्चिम से अलग भी कर सकता है तथा जरूरत पड़ने पर उसके साथ संबंध भी स्थापित कर सकता है।

भारतीय राज्यों द्वारा समय-समय पर धार्मिक अत्याचार का विरोध करने तथा राज्य के हित में धर्म निरपेक्षता के महत्त्व को समझाने के लिये धर्म के साथ निषेधात्मक संबंध भी स्थापित किया गया हैं। यह दृष्टिकोण अस्पृश्यता पर प्रतिबंध, तीन तलाक, सबरी माला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश जैसी कार्रवाइयों में स्पष्ट रूप से झलकता है।

लेखिका समाज शास्त्र की प्रोफेसर हैं और उत्तर प्रदेश में एक डिग्री कॉलेज में कार्यकर्ता हैं।